अनिल अनूप की खास रिपोर्ट
(पंजाब) देश की करीब 70 फीसदी आबादी गाँवों में रहती है और पूरे देश में दो लाख 39 हजार ग्राम पंचायतें हैं। पंचायती चुनाव में महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण देश के 20 राज्यों में हैं जिसमें अभी उत्तर प्रदेश शामिल नहीं है। आरक्षण के बाद पंचायत में महिला प्रधानों की संख्या तो बढ़ी है लेकिन उनकी सहभागिता अभी बहुत कम है। यूपी के जिला गोंडा अंतर्गत मुजेहना विकास खंड दुलहापुर बनकट पंचायत का एक उदाहरण मुझे जिक्र करना यहां आवश्यक लग रहा है।
उक्त पंचायत में महिला आरक्षण के तहत श्रीमती कुमारी को जनता ने प्रधान पद पर चुना। हैरत की बात है कि चुनाव प्रचार से लेकर आज तक जनता के बीच पंचायत प्रधान श्रीमती कुमारी की मुख्य भूमिका कथित प्रधान प्रतिनिधि पिता “राजबहादुर सिंह” और पुत्र “रविन्द्र प्रताप” सिंह दोनों ही मिलकर निभाते आ रहे हैं। चयनित प्रधान को यह भी नहीं पता कि उनके पंचायत में अब तक सरकार की कौन सी योजनाएं आई कितना खर्च हुआ कितना काम हुआ। ये सब दबंगई का चोला चढ़ाए स्व घोषित प्रधान प्रतिनिधि पिता पुत्र मिल कर ही संपादित और निष्पादित करते हैं। ऐसा नहीं है कि इसका फायदा जनता को नहीं दिख रही है।
आइए एक और छोटा सा उदाहरण देते हैं – एक वैसा व्यक्ति जो अपनी जिंदगी का बड़ा हिस्सा हरियाणा पंजाब की फैक्ट्रियों में साधारण सी नौकरी करते हुए परिवार का भरण पोषण करता रहा वह पिछले दो सत्रों से “प्रधान प्रतिनिधि” का बिल्ला लगाकर आज करोड़ों की संपत्ति का मालिक बन गया है। यह बात अगर इस कथित प्रधान प्रतिनिधि की संपत्तियों की गहराई से जांच की जाए तो पिक्चर क्लीयर हो सकती है। यह विषय एक अलग वर्णन का मुद्दा है।
इतना ही नहीं एक प्रधान की आड़ में वह इतना “सांढ” हो गया है कि उसे अधिकारियों को अपनी पाकेट में रहने का भ्रम भी घर कर गया है। राष्ट्रीय स्तर के पत्रकार को “फेसबुकिया” पत्रकार कहने की तमीज और “जेल की चक्की” पिसवाने का नाहक घमंड भी हो सकता है। हालांकि इस पर राष्ट्रीय स्तर के वरीष्ठ पत्रकारों ने आवाज उठाई तो वांछित स्तर पर जांच की प्रक्रिया शुरू हो गई है। बेचारी प्रधान जनता से संवाद तक कर नहीं सकती। बात इतनी सी नहीं है, आपको पंचायत के अधिकांश व्यक्ति के पास प्रधान प्रतिनिधि का फोन नंबर ही मिलेगा।
सशक्तिकरण की लड़ाई हमेशा से सत्ता में बराबर की साझेदारी की लड़ाई रही है। यही बात महिला सशक्तिकरण को लेकर भी रही है। दरअसल जब भी बात नारीवाद की होती है तो उसमें महिला और पुरुष के बीच शक्ति के समान बंटवारे की बात निहित होती है। चूंकि हम एक ऐसे लोकतांत्रिक समाज का हिस्सा हैं, जहां चुनी हुई सरकार के रूप में एक ‘लोककल्याणकारी राज्य’ की कल्पना की गई है ऐसे में सरकार समय-समय पर योजनाओं और नवीन प्रणाली के ज़रिये सामाजिक परिवर्तन की पहल करती रहती है। भारत गांवों का देश है। महात्मा गांधी कहते थे कि भारत का विकास गांवों के विकास से ही संभव हो सकता है। इसलिए ही उन्होंने पंचायती राज की वकालत की थी।
समाज के पितृसत्तात्मक होने के कारण महिलाओं की सामाजिक स्थिति भी काफी बेकार है। ऐसे में देश के सामाजिक-आर्थिक ढांचे को सुधारने और सत्ता में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने के उद्देश्य से अप्रैल 1993 को संविधान के 73वें और 74वें संशोधन के अंतर्गत पंचायती राज एक्ट के तहत पंचायतों में 33 प्रतिशत सीट्स महिलाओं के लिए आरक्षित कर दी गई। अपने घर में ‘डिसीज़न मेकर’ की जिस भूमिका से महिलाएं वंचित थी। वह कमी यहां पूरी होगी और इस तरह पंचायत में प्रधान के रूप में महिला सशक्तिकरण का लक्ष्य भी पूरा किया जा सकेगा। मगर यह देखने लायक बात है कि यह योजना अपने उद्देश्य में कितनी सफल है? कहीं अन्य सरकारी योजनाओं की तरह यह भी एक कागज़ी योजना तो नहीं है।
आंकड़ों की मानें तो यूनिसेफ (UNICEF) की एक रिपोर्ट के अनुसार उत्तरप्रदेश की 10 में से 7 महिला प्रधान अपने संवैधानिक अधिकारों के बारे में नहीं जानती हैं। केवल 2 महिलाएं यह जानती हैं कि प्रधान के रूप से उनकी क्या भूमिकाएं और जिम्मेदारियां हैं। इस प्रकार अगर देखा जाए तो संविधान द्वारा दिए गए 33 प्रतिशत आरक्षण में महज़ 3 प्रतिशत महिलाएं असलियत में प्रतिनिधित्व करती हैं।
दरअसल, हकीकत यह है कि महिलाओं को मिले इस आरक्षण के बाद भी गांवों के सामाजिक परिवेश में महिलाओं की स्थिति को बेहतर करने की कोई भी कोशिश नहीं की गई, इसका परिणाम यह हुआ कि चुनकर आई हुईं यह महिलाएं सिर्फ कागजों पर प्रधान बनकर रह गईं।
ग्रामीण इलाकों में प्रचलित ‘प्रधान-पति’ व्यवस्था को समझना हो तो ऐमज़ॉन प्राइम पर हाल ही में प्रसारित ‘पंचायत’ इसका एक सटीक उदाहरण है। इस सीरीज़ में गांव की आधिकारिक प्रधान मंजू देवी चुनाव तो लड़ती हैं लेकिन असल में केवल उनके नाम से चुनाव लड़ा जाता है, बाकी सब कुछ उनके पति दुबे जी देखते हैं। मंजू देवी घर के भीतर चूल्हा-चौका संभालती हैं, प्रधानी के किसी भी काम से उन्हें कोई मतलब नहीं होता।
ठीक यही हालत ग्रामीण इलाकों में महिलाओं के लिए पंचायत में आरक्षित सीटों पर होता है। घर की किसी महिला का नामांकन कर दिया जाता है और उसके बाद पूरी कार्यप्रणाली से उसे कोई मतलब नहीं होता। घर के पुरुष ‘प्रधान’ बन जाते हैं और असली प्रधान चूल्हे में उनके लिए भोजन बनाती रहती है, अपने क्षेत्र के किसी कामकाज में उसकी कोई निर्णायक भूमिका नहीं रहती।
अक्सर ये महिलाएं कम पढ़ी लिखी या अनपढ़ होती हैं, ऐसे में उन्हें न कार्यप्रणाली की जानकारी होती है न ही अपने अधिकारों और भूमिकाओं की, पुरुष सामाजिक पूंजी होने के कारण उनसे अधिक सक्षम महसूस करते हुए उन्हें आसानी से प्रतिस्थापित कर देता है।
कानून की सख्ती
ग्राम प्रधान चुनी गईं महिला ग्राम प्रधानों को खुद काम करना होगा। उन्हें ही ग्राम पंचायत की सभी बैठकों में शामिल होना होगा। महिला प्रधानों की जगह यदि उनके पति, बेटा या देवर मिनी सचिवालयों में बैठे और उनका काम करते नजर आए तो पंचायती राज एक्ट के तहत कार्रवाई होगी। शासन की ओर से इसके लिए पूर्व में ही जीओ यानी गवर्नमेंट आर्डर भी जारी किया गया है।
महिला प्रधानों से संबंधित क्या है गवर्नमेंट आर्डर :
जीओ में स्पष्ट है कि महिला ग्राम प्रधान के स्थान पर अगर कोई दूसरा प्रधानी करता है तो प्रधान के कार्य पर रोक लगा दी जाएगी और उसके वित्तीय समेत सभी अधिकार सीज कर दिए जाएंगे। इसके लिए सभी सचिवों को निर्देश दिया गया है कि महिला प्रधान के कार्य में अगर कोई हस्तक्षेप करता है तो उसे वह स्वयं रोके और उसकी रिपोर्ट डीपीआरओ को भेजें।
पंचायतीराज विभाग ने जारी की सूचना :
पंचायतीराज विभाग की ओर से जारी सूचना के अनुसार पंचायत की हर बैठक में प्रधान ही हिस्सा लें और उनकी मौजूदगी में ही क्या शिकायतें आईं, क्या कार्यवाही हुई, इसकी पूरी जानकारी पंचायत भवन में रखें। रजिस्टर में सभी के हस्ताक्षर के साथ लिपिबद्ध होगी। इसी रजिस्टर में सभी विभागों के एक-एक कर्मचारी की भी क्रमवार वहां उपस्थिती दर्ज होगी। अगर महिला प्रधान अपने दायित्व का निर्वाहन करती हुई नहीं मिली तो उनकी प्रधानी भी जा सकती है।
लोगों ने प्रधान को चुना है, उसके परिवार को नहीं
हाईकोर्ट में अपने आदेश में स्पष्ट किया कि लोग प्रधान को चुनते हैं, उसके परिवार के लोगों को नहीं। पद की शपथ भी ग्राम प्रधान ही लेता है, उसके परिवार के सदस्य नहीं। जब शपथ उसने ली है, तो पंचायत के आधिकारिक कार्य व कर्तव्य भी उसी को निभाने होंगे।
प्रधान पद के प्रशासकीय व वित्तीय कार्य भी उसे ही करने होंगे, जिनमें ग्राम सभा का अकाउंट संचालित करना, प्रस्ताव पारित कराना, ग्राम सभा की भूमि की भू-प्रबंधन समिति के अध्यक्ष के तौर पर काम करना शामिल हैं।
ऐसा कोई कानून नहीं है जो यह कहता है कि यह सब कुछ ग्राम प्रधान का कोई रिश्तेदार कर सकता है। ऐसा होगा तो लोकतंत्र का पहला सिद्धांत ही खत्म हो जाएगा जो कहता है कि प्रत्यक्ष चुनाव जीते व्यक्ति में ही नागरिक अपनी इच्छा दर्शाते हैं।
हाईकोर्ट ने कहा कि ग्राम प्रधान के सभी कार्य उसके हस्ताक्षर से ही चलते हैं। इनकी जगह ‘प्रधानपति’, ‘प्रधानपिता’ या ‘प्रधानपुत्र’ को अनुमति नहीं दी जा सकती। जजों ने कहा कि मौजूदा मामला भी ऐसा ही है, जो इस किस्म की सोच को बढ़ावा देता है।
राजनीति में खुलकर आएंगी तभी मजबूत बनेंगी महिलाएं
हाईकोर्ट ने कहा कि कई बार महिला ग्राम प्रधान आरक्षित सीट से चुन कर आती है तो लोग उन्हें गृहिणी, अनपढ़ या किसी और वजह से उसे पद के लिए कमतर बताते हैं। इसी आधार पर पति द्वारा प्रधानी के काम किए जाने को जायज ठहराया जाता है। हाईकोर्ट और देश का संविधान इस पूर्वाग्रह को नहीं मानता। किसी को महिला होने की वजह से कमजोर नहीं कहा जा सकता। यह सोच लैंगिक अन्याय को बढ़ावा देने वाली है। अगर महिला किसी लिहाज से पीछे है तब भी राजनीति में उनके खुलकर आने से लोकतंत्र को मजबूत बनाने में मदद मिलेगी। वे खुद भी मजबूत बनेंगी।
यह पुरातन पितृसत्तात्मक समाज की छाया को दूर करने के लिए जरूरी है। हाईकोर्ट ने कहा कि कई दशकों में महिलाओं के हालात में सुधार नहीं आया है। यह 1939 में प्रसिद्ध पत्रकार रजनी जी शहानी की लिखी पुस्तक ‘इंडियन पिलग्रिमेज’ के भाग ‘द ग्रैंड्यर एंड सर्विट्यूड ऑफ इंडियन वीमन’ और वर्तमान पत्रकार बरखा दत्त की पुस्तक ‘द यूनीक लैंड’ के भाग ‘प्लेस ऑफ वीमन’ में तुलना करके समझा जा सकता है।