उत्तर प्रदेश मुलायम सिंह ने समाजवादी पार्टी को जिस मुकाम पर पहुंचाया, उसमें उनकी संपर्क, संवाद और संघर्ष की रणनीति अहम थी. अब अखिलेश भी इसी रास्ते पर चलेंगे हार के बाद मुलायम की ‘रणनीति’ पर उपचुनाव लड़ेंगे अखिलेश, करेंगे ये काम लोकसभा चुनाव में हार के बाद गठबंधन से अलग होकर उपचुनाव लड़ने जा रहे समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव अब अपने पिता मुलायम सिंह की राह पर चलेंगे. यूपी में 12 विधानसभा सीटों पर होने वाले उपचुनाव के लिए वो मुलायम की रणनीति पर काम करेंगे. दरअसल, मुलायम सिंह ने समाजवादी पार्टी को जिस मुकाम पर पहुंचाया, उसमें उनकी संपर्क, संवाद और संघर्ष की रणनीति अहम थी. अब अखिलेश भी इसी रास्ते पर चलेंगे.
(अब इसी फ़ॉर्मूले पर काम करते हुए)
अखिलेश उपचुनाव में उतरेंगे. वो संपर्क, संवाद और संघर्ष के रास्ते पर चलेंगे. इसके लिए अखिलेश लोकसभा सत्र खत्म होने के बाद जुलाई से यूपी के सभी जिलों का दौरा करेंगे. इस दौरान वो लोगों से संपर्क और संवाद करेंगे. जनता को पार्टी की नीतियों से अवगत कराएंगे और उनकी समस्याओं को लेकर पार्टी कार्यकर्ताओं संग संघर्ष करते नजर आएंगे. इसके लिए पार्टी के नेता, पदाधिकारी, जिला, बूथ और गांव स्तर के कार्यकर्ताओं को निर्देश दिया गया है कि वो जनता के बीच जाएं.
(मुलायम-शिवपाल ने संगठन को किया था मजबूत)
मुलायम सिंह यादव को एक मंझा हुआ राजनेता माना जाता है. उनकी राजनीति जमीन से जुड़ी हुई रही है. लोगों से मिलना, उनसे बात करना और उनकी समस्याओं को लेकर किए गए संघर्ष की वजह से ही समर्थक उन्हें ‘धरतीपुत्र’ बुलाते हैं. मुस्लिम और पिछड़ों के साथ मुलायम सवर्णों को भी अपने साथ जोड़ने में माहिर रहे. इसमें मुलायम को अपने छोटे भाई शिवपाल यादव का पूरा सहयोग मिला था. जिसकी वजह से संगठन मजबूत था, लेकिन अब स्थिति जुदा है. शिवपाल पार्टी में नहीं हैं. उन्होंने पिछले साल अपनी अलग पार्टी बना ली थी. माना जा रहा है कि शिवपाल के अलग होने से भी सपा का संगठन कमजोर हुआ है. जिसका असर मई में संपन्न लोकसभा चुनाव में भी देखने को मिला
(गठबंधन की रणनीति हुई फेल)
वर्ष 2017 में अखिलेश ने पार्टी और परिवार में कलह के बाद जब पार्टी पर एकाधिकार जमाया तो उसके बाद से उनकी अगुवाई में पार्टी दो बड़े चुनाव हार चुकी है. दरअसल वो गठबंधन की रणनीति पर आगे बढ़े. 2017 का विधानसभा चुनाव उन्होंने कांग्रेस के साथ गठबंधन कर लड़ा. 2019 का लोकसभा चुनाव से पहले उन्होंने 25 साल की सियासी दुश्मनी को भुलाकर मायावती संग गठजोड़ किया था. लेकिन दोनों ही चुनावों में सपा को करारी शिकस्त मिली. हार की समीक्षा के दौरान ये बात सामने आई कि संगठन ठीक से काम नहीं कर सका. यही वजह थी कि उन्होंने सभी फ्रंटल संगठन को भंग कर दिया यूपी की राजनीति को करीब से जानने वाले वरिष्ठ पत्रकार रतनमणि लाल कहते हैं कि चुनाव हारने के बाद सभी पार्टियां समीक्षा करती हैं. उसके बाद वो जनता के बीच जाने की बात भी करती हैं. ऐसा ही कुछ अब कांग्रेस, बसपा और सपा भी कर रही हैं. प्रियंका गांधी वाड्रा अपना यूपी दौरा बढ़ाने जा रही हैं, मायावती भाईचारा कमेटी की बैठक करेंगी और अब अखिलेश भी जिलों का दौरा. लेकिन 2012 से 2017 तक सरकार चलाने के दौरान अखिलेश यही सोचते रहे कि उनके द्वारा किए गए काम और उनका युवा चेहरा जीत के लिए काफी है, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. उन्होंने काम बोलता है का नारा दिया. लखनऊ मेट्रो, एक्सप्रेस-वे जैसी तमाम योजनाओं को गिनवाया, लेकिन बात नहीं बनी उधर बीजेपी लगातार संपर्क और जनता के सरोकार से जुड़े मुद्दे की बात करती रही इसका मतलब साफ है कि वोट सिर्फ काम से ही नहीं मिलते बल्कि लोगों से संपर्क और संवाद भी उतना ही जरूरी है, जो कि अखिलेश ने नहीं किया वो लखनऊ में पार्टी के चुनिंदा लोगों के संग समीक्षा करते रही. अब उनका प्रयास होगा कि वो जिलों में निकलें और जनता से परस्पर संवाद बनाएं
(2012 के बाद से नहीं किया जिलों का दौरा)
अखिलेश यादव ने आखिरी बार 2012 के विधानसभा चुनाव में यूपी के सभी जिलों का दौरा किया था लेकिन मुख्यमंत्री बनने के बाद ये सिलसिला खत्म हो गया. 2017 में सत्ता गंवाने के बाद एक बार लगा था कि वो जिलों में निकलेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. वो लखनऊ से बैठकर ही संगठन की समीक्षा करते रहे. लोकसभा चुनाव से पहले भी उनके दौरे गिने चुने ही रहे. चुनाव प्रचार के दौरान भी वो सभी जिले में नहीं पहुंचे. यही वजह थी कि सपा के दूसरे पंक्ति के नेता भी जनता से कटे रहे.
(सीएम योगी आदित्यनाथ ने मथा पूरा प्रदेश)
उधर बीजेपी की बात करें तो 2017 में मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही योगी आदित्यनाथ सूबे के 75 जिलों में एक से ज्यादा बार जाने का रिकॉर्ड बनाया. साथ ही उनके मंत्री, विधायक और संगठन के पदाधिकारी भी कई कार्यकर्मों के माध्यम से गांव-गांव घूमे. जिसका असर यह हुआ कि सपा-बसपा के बीच जातिगत समीकरण पर आधारित गठबंधन होने के बावजूद बीजेपी 80 में से 62 सीटें जीतने में कामयाब रही. जबकि सपा को महज 5 और बसपा के खाते में 10 सीटें गईं