अनिल अनूप
करीब आधी सदी तक कांग्रेस के अंतरंग हिस्सा रहे गुलाम नबी आज़ाद, अंतत:, ‘कांग्रेस-मुक्त’ हो गए। यह कोई चौंकाऊ और अप्रत्याशित ख़बर नहीं थी। अलबत्ता यह कांग्रेस के आत्म-विध्वंस की चेतावनी जरूर है। कांग्रेसी लगातार पार्टी छोड़ रहे हैं। ऐसे नेताओं की फेहरिस्त लंबी है। मोदी कालखंड के आठ सालों के दौरान 400 से अधिक नेताओं ने कांग्रेस को अलविदा कहा है। उनमें 33 वरिष्ठ कांग्रेसी थे। 2016-21 के दौरान करीब 45 फीसदी कांग्रेस विधायक पार्टी से अलग हुए और भाजपा में शामिल हो गए। बीते आठ सालों में कांग्रेस के 177 सांसदों और विधायकों ने पार्टी छोड़ी है। इसी साल पार्टी से अलगाव की इबारत लिखने वाले गुलाम नबी आज़ाद 12वें नेता हैं। दरअसल अलगाव और विखंडन की यह पटकथा जनवरी, 2013 में ही लिख दी गई थी, जब कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने पुत्र राहुल गांधी को पार्टी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाया था। राहुल की सोच जल्द ही सामने आई, जब उन्होंने कांग्रेस को ‘बुजुर्ग बनाम नौजवान’ खानों में विभाजित करना शुरू किया। पार्टी के पुराने नेताओं को दरकिनार कर युवा नेताओं की ‘कोटरी’ बनने लगी।
विश्लेषण किए जाने लगे कि राहुल गांधी ‘नई कांग्रेस’ बनाना चाहते हैं। कांग्रेस में द्वन्द्व शुरू हो गया। जिन नेताओं ने खून-पसीना एक कर, सालों के संघर्ष के बाद, कांग्रेस को स्थापित करने में योगदान दिया था, वे सवाल करने लगे। रोष जताने लगे। सुनवाई नहीं हुई, तो वे पार्टी छोड़ते रहे। गुलाम नबी उस सिलसिले की ताज़ा कड़ी हैं। सवाल है कि अभी कांग्रेस में कितने और ‘गुलाम’ होंगे, जो ‘आज़ाद’ होना चाहते हैं। गुलाम नबी आज़ाद ने कांग्रेस अध्यक्ष के नाम पांच पन्नों का जो त्याग-पत्र लिखा है, उसमें उन्होंने सोनिया गांधी को पार्टी का ‘मुखौटा’ तक करार दिया है। राहुल गांधी को ऐसा नेता माना है, जो कभी गंभीर नहीं हुआ। उनके प्रत्यक्ष या परोक्ष कालखंड में कांग्रेस का बंटाधार हुआ है। पार्टी अब वापसी नहीं कर सकती। वह इतिहास में ‘राजनीतिक अतीत’ के तौर पर दर्ज हो सकती है। बीते आठ सालों के दौरान जो 49 चुनाव हुए हैं, उनमें से 39 चुनाव कांग्रेस ने हारे हैं। लोकसभा के लगातार दो चुनाव पार्टी हारी है। सदन में सांसदों की संख्या 53 है, लिहाजा संसदीय दल के नेता को ‘प्रतिपक्ष के नेता’ का दर्जा नहीं मिल पाया है। देश के मात्र दो राज्यों-छत्तीसगढ़ और राजस्थान-में कांग्रेस सरकारें बची हैं। इन राज्यों में भी 2023 में विधानसभा चुनाव हैं। बिहार और झारखंड की गठबंधन सरकारों में कांग्रेस महज एक घटक है। जिस उप्र ने देश को चार कांग्रेसी प्रधानमंत्री दिए, आज वहीं अकेली सोनिया गांधी ही लोकसभा सांसद हैं। विधानसभा में मात्र दो विधायक हैं। देश के कई राज्य ऐसे हैं, जहां कांग्रेस का एक भी सांसद नहीं है।
लोकसभा की करीब 230 सीटें ऐसी हैं, जिन पर भाजपा और कांग्रेस का सीधा मुकाबला होता है, लेकिन वहां की रेस में भी कांग्रेस बहुत पीछे है। बेशक कांग्रेस का ऐसा सूपड़ा साफ होने का बुनियादी दायित्व गांधी परिवार पर ही है, क्योंकि बीते 24 सालों में सोनिया अथवा राहुल गांधी ही कांग्रेस अध्यक्ष रहे हैं। बेशक कांग्रेस ने गुलाम नबी आज़ाद को बहुत कुछ दिया है। वह सब कुछ देश के सामने है, उसे दोहराना उचित नहीं। इतना जरूर कहा जा सकता है कि कांग्रेस ने ये पद उन्हें थाली में सजा और परोस कर नहीं दिए। चूंकि वह पार्टी के निष्ठावान, वरिष्ठ, अनुभवी, योग्य, सांगठनिक क्षमता वाले और राजनीतिक रणनीति के नेता साबित होते रहे, लिहाजा पार्टी ने उन्हें विभिन्न दायित्व सौंपे। बहरहाल अब गुलाम नबी की राजनीति का आकलन किया जाना चाहिए, जिससे कांग्रेस को लगातार आघात मिल सकते हैं। फिलहाल वह भाजपा में नहीं जाएंगे। बेशक राज्यसभा में उनकी सेवानिवृत्ति के मौके पर भाषण देते हुए प्रधानमंत्री मोदी भावुक हो गए थे। बेशक मोदी सरकार ने उन्हें देश के दूसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान-‘पद्मविभूषण’-से नवाजा था। बेशक दिल्ली में गुलाम नबी के सरकारी आवास को बरकरार रखा गया। इसके बावजूद उन्हें ‘मोदीमय’ करार देना गलत है। गुलाम नबी अपनी पार्टी बना कर कश्मीर से ही सियासत की दूसरी पारी शुरू करना चाहते हैं, ऐसे संकेत मिल रहे हैं। फिलहाल यह विश्लेषण किया जा सकता है कि कांग्रेस अभी नहीं मरेगी। वह राजनीतिक पार्टी के तौर पर जि़ंदा रहेगी। अब भी उसके पक्ष में 10 करोड़ से ज्यादा वोट हैं। आप कांग्रेस को ‘डूबता जहाज’ कह सकते हैं। पार्टी संगठन छिन्न-भिन्न है। पार्टी के बुनियादी जनाधार छिन चुके हैं। ‘भारत जोड़ो अभियान’ से कांग्रेस को कुछ उम्मीदें हैं। उसे देखना चाहिए, लेकिन कांग्रेस का मौजूदा संकट बेहद गंभीर है। ऐसा लगता है कि कांग्रेस बदलाव की ओर बढ़ रही है और वह नए रूप में देश के सामने आएगी।