अनिल अनूप की खास रिपोर्ट
पंजाब । बचपन मानव जीवन का आधार स्तंभ है जिस पर संपूर्ण जीवन का ढांचा स्थिर है। जिस परिवेश में बचपन फलता है और जो कुछ वह देखता, परखता, पढ़ता व समझता है, वह सभी कुछ उसके ना•ाुक अस्तित्व को गहराई से प्रभावित करता है। उसका संपूर्ण व्यक्तित्व कितना सुदृढ़, कमजोर, कुंठित और संतुलित है, यह बाल साहित्य पर निर्भर करता है, जिसके परिणामस्वरूप स्कूली पढ़ाई से हटकर बच्चा विशुद्ध मनोरंजन हेतु बाजार में बिकने वाली रंगीन पुस्तकों को बड़ी एकाग्रता से पढ़ता है।
बाल साहित्य के शांति व विवेक से, चिंतन एवं मनन से अवगत होता है कि बाल साहित्य की परिभाषा कैसी होनी चाहिए और बाजार में उपलब्ध बाल साहित्य किस स्तर का होना चाहिए? श्रेष्ठ साहित्य की जो परिभाषा है, उससे अलग बाल साहित्य की कोई परिभाषा हो ही नहीं सकती। बाल साहित्य जहां बच्चों की रुचि की संतुुष्टि करता है, वहीं उसमें जिज्ञासा को शांत करने की क्षमता भी रखता है। आज आवश्यकता है सुरुचिपूर्ण बाल साहित्य की, जिसके लिए भाषा व शैली का सरल होना अत्यावश्यक है। बच्चों के स्तर पर उतरकर उनकी आंखों से देखकर उन्हीं के मन में झांककर उनकी बुद्धि को परखकर जो कुछ लिखा जाता है, वही सही बाल साहित्य कहलाता है। इसी से बाल मन की कल्पना शक्ति का उचित पोषण और इच्छाओं की सृष्टि होती है तथा बच्चे को स्वस्थ मनोरंजन के साथ-साथ उसे कुछ सीखने व समझने की भी बुद्धि मिलती है। बाल साहित्य वही लिख सकता है, जो अपने आपको बच्चों जैसा बना ले।
बड़े होकर बच्चा बनना मुश्किल है और उससे भी मुश्किल है बच्चा बनकर उनके अनुकूल लिखना। इसलिए जो बच्चों के लिए लिखते हैं, वे एक पवित्र कार्य करते हैं और उनका यह कार्य साधना का कार्य है। बच्चों का मन कोरा होता है। उनके कोरे मन के कागज पर जैसी इबारत लिखी जाएगी, उनके चरित्र का निर्माण भी वैसा होगा। ये बच्चे ही भविष्य के वे नागरिक होंगे जिनके कंधे पर यह दुनिया होगी, यह महासमाज होगा। एक समय वह भी था जब बाल साहित्य मौखिक रूप से जनश्रुति पर ही आधारित था। वर्तमान में बाल साहित्य के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए हैं। बाल साहित्य पत्र-पत्रिकाओं, पुस्तकों, पाठ्य पुस्तकों, ऑडियो-वीडियो कैसेटों, दूरदर्शन, आकाशवाणी, नेट बुक्स और बाल फिल्मों इत्यादि के माध्यम से अपनी सौद्देश्य पहचान बनाए हुए है।
आज हिंदी का बाल साहित्य विभिन्न विधाओं में द्रुत गति से विकसित होकर देशभर में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान बना चुका है। वर्तमान में बाल साहित्य समय की अनिवार्य मांग बनता जा रहा है। इस कार्य को प्रिंट मीडिया ने बहुत अधिक विस्तार दिया है। प्रारंभ में बाल साहित्य की केवल गिनी-चुनी पत्रिकाएं ही थीं। कालांतर में अनेक नई पत्रिकाएं प्रकाशित होने लगी। इस समय भी प्राय: सभी दैनिक समाचारपत्र, साप्ताहिक, मासिक पत्र प्रतिदिन, प्रति सप्ताह, मास बाल साहित्य के नाम पर आकर्षक परिशिष्ट निकाल कर स्वयं गौरवान्वित हो रहे हैं। आए दिन अन्य पत्रिकाएं भी बाल साहित्य पर विशेषांक देकर बाल साहित्य की श्रीवृद्धि में योगदान दे रही हैं। दृश्य-श्रव्य मीडिया में आकाशवाणी-दूरदर्शन पर बच्चों के कार्यक्रम प्रसारित हो रहे हैं।
बाल फिल्मों की संख्या भी तेजी से बढ़ रही है। इसी क्रम में विभिन्न स्तरों पर बाल साहित्य के अनेक कार्यक्रम आयोजित हो रहे हैं और फलस्वरूप इन दिनों बाल साहित्य सर्वप्रियता की बुलंदियों को छू रहा है। बच्चे किसी भी राष्ट्र का भविष्य होते हैं। उनकी शिक्षा और संस्कार की पृष्ठभूमि जितनी सुदृढ़ होगी, वे आगे चलकर उस राष्ट्रीय विकास के लिए उतने ही नए आयाम बना पाएंगे। आज प्रभूत मात्रा में बाल साहित्य लिखा जा रहा है, परंतु विडंबना यह है कि बच्चों को अध्यापकों या अभिभावकों द्वारा न तो अवगत करवाया जा रहा है और न ही बेहतर तरीके से परोसा जा रहा है।
बच्चे संयुक्त परिवारों से एकल परिवारों की सभ्यता में परिवर्तित हो रहे हैं। उनके सभी खेल मोबाइल या टीवी, प्ले-स्टेशनों तक सीमित होकर रह गए हैं। माता-पिता बच्चों को सभी सुख-ऐशो-आराम दे रहे हैं, परंतु दादी-नानी की तरह कहानियां नहीं सुना रहे, उनके साथ वो समय नहीं बिता पा रहे, जो समय कभी उन माता-पिता ने अपने परिवारजनों के साथ बिताया था। समय या भावनाओं के इस अंतराल को बाल साहित्य द्वारा पूरित किया जा सकता है। आज जब मानव मूल्यों का विघटन हो रहा है, नैतिक मूल्य धराशायी हो रहे हैं, स्वार्थ, भ्रष्टाचार, अनैतिकता का बोलबाला हो रहा है, तब बाल साहित्य ही बच्चों का मार्गदर्शन कर सकता है। बाल साहित्य आरंभ से ही बच्चों में उन गुणों का बीजारोपण करता है जो भविष्य में चरित्रवान और नैतिक मूल्यों की रक्षा करने वाले व्यक्तियों को जन्म देता है।
यदि बच्चों में अनुशासन, बड़ों के प्रति सम्मान, कत्र्तव्य बोध, दया, परोपकारिता, मित्रता, आदर्श खिलाड़ी भावना, कर्म के प्रति समर्पण जैसे मानवीय गुण विकसित कर दिए जाएं तो बालक स्वयंमेव एक अच्छा व्यक्तित्व वाला बन सकता है जो समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकता है। स्पष्ट रूप में कहा जा सकता है कि बाल साहित्य का उद्देश्य बच्चों के व्यक्तित्व का निर्माण करना तथा उसके विकास के लिए समुचित दिशा प्रदान करना होना चाहिए। इस दृष्टिकोण से बाल साहित्य के लेखन एवं चुनाव के लिए आवश्यक हो जाता है कि लेखक, अध्यापक तथा अभिभावक बालक के व्यक्तित्व के विकास की विभिन्न अवस्थाओं में मनोवैज्ञानिक विशेषताओं को पहचानें।
बाल साहित्य बच्चों के मनोनुकूल, उनका मनोविज्ञान समझकर उन्हीं के स्तर पर उतर कर, उन्हीं की भाषा में उनके समझने योग्य अभिव्यक्ति द्वारा लिखा जाना चाहिए। बाल साहित्य का लक्ष्य बच्चों के मानसिक धरातल पर उतरकर उन्हें रोचक ढंग से नई जानकारियां देना है। यदि बच्चे में कल्याण भावना और सौंदर्यपरक दृष्टि जागृत करनी हो तो उनकी समस्त आकांक्षाओं और जिज्ञासाओं का स्कूली शिक्षा के साथ विकास आवश्यक है। शिशुमन की चंचल जिज्ञासाओं के नवीन अनुभवों और शिव संकल्पों से प्रेरित करने का मुख्य साधन बाल साहित्य ही है।