एक ज़माना था जब पत्रकार मतलब कलम और कलम मतलब पत्रकार ही समझा जाता था और दोनों का नाता भी अटूट होता था। कलम की धार को पत्रकार की तलवार माना जाता था। जब कोई पत्रकार घर से निकलता था तब वह चाहे कुछ भी घर से लेना भूल जाता मगर कलम साथ लेना नहीं भूलता था। कलम के भी दो प्रकार होते थे। एक कलम नीली स्याही वाली होती थी तो दूसरी कलम काली स्याही वाली हुआ करती थी। नीली स्याही वाली कलम से खबरों के मुख्य अंश कागज़ पर अथवा डायरी में लिखे जाते थे और काली स्याही वाली कलम से खबर बनाकर समाचार पत्र के दफ्तर में फैक्स के जरिए भेज दी जाती थी। काली स्याही से फैक्स एक दम साफ़ जाता था। …. कुछ पत्रकार अपने कार्यालय में जाकर भी खबरें देने का कार्य करते थे और कार्यालय में ही बैठकर खबरें भी लिखा करते थे। इन खबरों को उप सम्पादक अथवा खुद सम्पादक देखा करते थे और फिर थोड़ा बदलाव कर उस खबर पर लाल स्याही वाले पेन से शीर्षक का फॉण्ट साइज़ और खबर का फॉण्ट साइज़ लिख कर टाइपिंग को भेज दिया करते थे। इसके बाद खबर जब टाइपिंग होकर आ जाती थी तब प्रूफ रीडर खबर को देख कर टाइपिंग की गलतियां सुधार कर उस पर सांकेतिक भाषा में लिख भी दिया करता था। जैसे यदि दो शब्दों में दूरी रखनी है तो # का निशान बना देता था , यदि कुछ हटाना होता था तो डीलीट का सिर्फ डी लिख देता था , इसके अलावा भी काफी कुछ सांकेतिक भाषा में लिख कर प्रूफ रीडर अपना कार्य कर देता था। इन सब में कलम का रिश्ता कहीं भी छूटता नहीं था। भले ही स्याही का रंग बदल जाता था मगर कलम चलती रहती थी। …. सम्पादक अक्सर लाल स्याही का प्रयोग करके सम्पादकीय लिखा करते थे। …. युग बदलता गया ट्रेडल से कटिंग पेस्टिंग और फिर पेज मेकर आ गया। काम और भी आसान होता गया। फैक्स की जगह ई मेल ने ले ली। जो पत्रकार एक ज़माने में पैदल ही घूम कर खबरें एकत्र करने का काम करता था वह पत्रकार आने जाने का साधन तलाशने लगा। खबर के प्रति सचेत रहने वाला पत्रकार अब अख़बार के लिए विज्ञापन भी तलाशने लगा। समाचार पत्रों में भी विज्ञापन दाता को महत्व दिया जाने लगा। मगर कलम और पत्रकार का साथ नहीं छूटा। .. अचानक देश में पेजर क्रांति आ गयी। कुछ बड़े समाचार पत्र के समूहों ने अपने अंशकालिक पत्रकारों को भी पेजर उपलब्ध करवा दिए। इस पेजर के जरिये अख़बार समूह और उनके संवाददाताओं के बीच दिन भर संवाद होता रहता था। … कलम फिर भी पत्रकार की साथी बन चलती रही। …. किसी पत्रकार को यदि सम्मानित किया जाता था तो हर संस्था पत्रकार के साथ पत्रकार की कलम की भी प्रशंसा ज़रूर करती थी और कहती थी इनकी कलम ने हंगामा किया हुआ है। तब पत्रकार अपनी कलम को हाथ से छू कर गज़ब का गौरवान्वित महसूस करता था। … इसके बाद न्यूज़ चॅनेल्स का दौर आया और पत्रकार इस अनोखे जगत की तरफ रूख करने को लालायित हो गया। कैमरे के सामने खड़े होकर बोलना और बाकी की खबर को रेकार्ड कर चॅनेल में भेज देना ही पत्रकारिता हो गयी। चॅनेल में बैठे पत्रकार भी उस खबर को रिकॉर्डिंग के हिसाब से बनाकर पेश करने लगे। … यहां से पत्रकार और कलम का नाता थोड़ा टूटना शुरू हो गया। फिर आया मोबाईल का युग। सिर्फ बातचीत का साधन बना मोबाईल अपने नए नए फीचर्स की वजह से पत्रकारों की पत्रकारिता को आसान बनाता गया। मगर पत्रकारों की साथी कलम का महत्व कम होता चला गया। लेपटॉप और मोबाईल के ज़माने में कलम का काम सिर्फ खबर के महत्वपूर्ण अंश एक कागज़ में लिखने के सिवा कुछ नहीं रह गया है। कुछ साल तक पत्रकार की कलम को विराम मिलने के बाद पत्रकार की उंगलियां मोबाईल की स्क्रीन पर चलने लगीं और अब तो यह हालात हो गए हैं कि उंगलियां चलनी भी बंद हो गयी हैं। अब मोबाईल पर बोलने से टाइप करने के दिन आ गए हैं। कलम को अब पत्रकार उतना महत्व नहीं देते हैं जितना बरसों से दिया जाता रहा है। अब तो कई पत्रकार कलम साथ में भी नहीं रखते। …. जबकि कलम पत्रकार की शान होती है। बिना कलम के पत्रकार की कल्पना करना भी मुश्किल है मगर आधुनिक युग में कलम और पत्रकार का रिश्ता कम होता जा रहा है। जिसकी वजह से पत्रकारों की पत्रकारिता में भी तीखापन खत्म होता दिखने लगा है। न्यूज़ चॅनेल्स पर चिल्लाने वाले , समाचार पत्रों में न्यूज़ एजेंसी से आये आलेखों को सम्पादकीय के रूप में प्रकाशित करने वाले पत्रकार – सम्पादक बढ़ गए हैं। मगर मुझे विश्वास है यह आधुनिक युग वाली पत्रकारिता ज्यादा दिन नहीं चलने वाली एक दिन फिर कलम वाली पत्रकारिता का दौर आएगा और वही दौर सर्वश्रेष्ठ होगा।
उत्तर प्रदेश ब्यूरो
चीफ नीरज जैन