नीरज जैन की रिपोर्ट
उत्तर प्रदेश । प्रत्येक लग्न के लिए एक ग्रह ऐसा होता है जो योगकारक होने के कारण शुभ फलदायी होता है। यदि ऐसा ग्रह कुण्डली में बलवान अर्थात् उच्चराशिस्थ, स्वराशिस्थ या वर्गोत्तमी होकर केन्द्र या त्रिकोण भाव में शुभ ग्रह के प्रभाव में स्थित हो व इस पर किसी भी पाप ग्रह का प्रभाव न हो तो यह अकेला ही जातक को उन्नति देने में सक्षम होता है। अतः इसका रत्न धारण करना शुभ फलदायी अर्थात अच्छे प्रभाव देने वाला होगा। परन्तु यदि यह अशुभ भाव में अशुभ ग्रहों के प्रभाव से ग्रस्त हो तो जातक इस योगकारक ग्रह के शुभ प्रभाव से वंचित रह जाता है। ऐसी स्थिति में इसकी अशुभता को नष्ट करने हेतु इसके लिये रुद्राक्ष धारण किया जाना चाहिए।
ग्रह अनुसार रुद्राक्ष-:
सूर्य के लिए 1 मुखी रुद्राक्ष, चंद्र-2 मुखी, मंगल-3 मुखी, बुध- 4 मुखी, गुरु-5 मुखी, शुक्र-6 मुखी, शनि-7 मुखी, राहु-8 मुखी एवं केतु के लिए 9 मुखी रुद्राक्ष धारण करना चाहिए।
जैसे – रत्नों में सूर्य के लिए माणिक्य, चंद्र के लिए मोती या चंद्रमणि, मंगल-मूंगा, बुध-पन्ना, गुरु-पुखराज या सुनैला, शुक्र-हीरा व ओपल, शनि-नीलम, राहु-गोमेद व केतु के लिए लहसुनिया धारण करना श्रेयस्कर है।
रत्न व रुद्राक्ष पहनने से लाभ होता है लेकिन पूर्ण फल प्राप्त करने हेतु धारक को नियमित रूप से ग्रह के अधिपति की पूजा करनी चाहिए।
जहां शुभ, योगकारक व बली ग्रहों के प्रभाव को बढ़ाने के लिए रत्न धारण करना चाहिए वहीं अकारक, नीच राशिस्थ व अशुभ भाव में स्थित ग्रह के शुभ फल प्राप्त्यर्थ रुद्राक्ष धारण करना श्रेष्ठ होता है।
लग्न अनुसार रुद्राक्ष-:
मेष लग्न के जातक-:
मेष लग्न के जातक के लिए सूर्य, चन्द्र, मंगल व गुरु योगकारक ग्रह हैं। अतः इनके लिए माणिक्य, मोती, मूंगा व पुखराज धारण कर सकते हैं, लेकिन मंगल अष्टमेश है अतः मंगल के लिए 3 मुखी रुद्राक्ष स्वास्थवर्द्धक हो सकता है।
गुरु के लिए द्वादशेश होने के कारण पंचमुखी रुद्राक्ष धारण करना समृद्धि कारक होगा। बुध, शुक्र व शनि इस लग्न के लिए बाधाकारक हैं अतः इन ग्रहों के लिए रत्न धारण न कर 4 मुखी, 6 मुखी व 7 मुखी रुद्राक्ष धारण करना श्रेष्ठ है।
यदि सूर्य, चन्द्र भी छठे, आठवें एवं बारहवें स्थान पर आ जाते हैं तो रत्न की अपेक्षा 1 मुखी व 2 मुखी रूद्राक्ष धारण करना ही श्रेष्ठ है।
मुहूर्त व पूरे विधि विधान से धारण करें रुद्राक्ष-:
जिस दिन चंद्रमा गोचर में आपकी जन्म राशि से चौथा, आठवां, बारहवां हो उस दिन रुद्राक्ष धारण न करें, रिक्ता तिथि व संक्रांति के दिन भी रुद्राक्ष धारण न करें। ध्यान रहे रुद्राक्ष हमेशा शुभ मुहूर्त में और पूरे विधि- विधान के साधारण करना चाहिए।।
शंका – शिव एवं विष्णु मे कौन श्रेष्ठ है????
समाधान-
शंका एवं प्रश्न का कारण पीछले कुछ समय से सोशियल मिडिया मे कुछ वैष्णव संप्रदाय एवं उनके आचार्यो द्वारा भ्रम फैलाया गया है कि विष्णु ही श्रेष्ठ है। यहां तक कि वर्तमान रामानुजाचार्य स्वामी श्री राघवाचार्य जी द्धारा तो व्यासपीठ से शिवजी को भगवान मानने से ईन्कार किया गया है। कलिकाल के आरंभ मे ही भगवान शंकराचार्य ने स्मार्त सिद्धांत को पुनः स्थापित कर पंचदेवोपासना से संप्रदायो एकत्व स्थापित किया था। शिव शक्ति सौर गाणपत्य एवं वैष्णव संप्रदायो मे अपने अपने ईष्ट को श्रेष्ठ मानते हुए उपासना कि तो छुट है लेकिन अन्य संप्रदाय के ईष्ट कि निंदा करना अपराध है। वास्तव मे शिव ही विष्णु है। विष्णु ही शिव है। जैसे विष्णु पुराणादि में विष्णु का परत्व है उसी प्रकार शिवपुराण, स्कन्दादि में विष्णु का परत्व एवं सदाशिव का अपरत्व प्राप्त होता है।
महाभारत में भी अन्यत्र अपरत्व दिखाने पर भी भीष्म के सामने युधिष्ठिर के लिए स्वयं श्रीकृष्ण मुख से भी शिव का परत्व ही बोधित होता है।
जिस प्रकार विष्णुसम्बन्धि पुराण राजस, तामस आदि विभाग कर शिव शक्ति के परत्व से पीछा छुडाने का प्रयत्न करते हैं वह भी सफल नहीं क्योंकि शैव पुराणों में भी शिवस्तुति एवं महात्म्यप्रतिपादक शास्त्र हीकल्याकणकारक हैं एवं अश्रुतशिवमहात्म्य पुरुष नरकगामी होता है। यदि आप हमारे द्वारा जन्म पत्री दिखाना व बनवाना चाहते हैं या अपने घर फैक्ट्री फ्लैट मकान दुकान प्लाट का वास्तुदोष उपाय बिना तोड़ फोड़ के निवारण कराने के लिए या बने हुए घर मै कौनसा सामान कोनसी दिशा मै रखें जिससे घर मै सुख समृद्धि बनी रहे तो आज ही ओरा स्कैन कराने के लिए मुझे सम्पर्क कर सकते है जिस प्रकार श्रुति में भी एको नारायणो न द्वितीयोस्तिकश्चित् वचन नारायण अथर्व में पाये जाते हैं वैसे ही एक एको रुद्रो न द्वितीयाय तस्ये आदि वचन भी तैत्तिरीय श्रुति में पाये जाते हैं। इसी प्रकार भस्म त्रिपुण्ड की प्रशंसा तदितर की निन्दा तो कहीं उर्ध्वपुण्ड्र की प्रशंसा तदितर की निन्दा प्राप्त होती है। उर्ध्वपुण्ड्र की विधि करते जहां उपनिषद् प्राप्त ही हैं वहां जबालोपनिषद् आदि में भी भस्मधारण एवं रुद्राक्ष का महात्म्य है।
न तो शिव की श्रेष्ठता हेतु शास्त्र प्रमाणों की कोई कमी है न ही विष्णु के न ही रामचन्द्रजी व कृष्णजी केअत: कुछ ऐसा नहीं है जिसमें कि एक की श्रेष्ठता एवं अन्य की न्यूनता की सिद्धि हो किन्तु कलहप्रिय पौण्ड्रकों को एक ही पक्ष दिखता है। एक ही बिम्ब को, एक ही परमतत्व की भावानुसार पृथ्थक पृथ्थक वेशभूषा नाम रूपादि भेद से उपासना एवं तदुपासना हेतु शास्त्रों में विधान आदि किया गया है। उसी रूपादि में निष्ठादृढता के लिए नियत रूपादि का ही महात्म्य एवं तदितर की निन्दा शास्त्रों में प्रतिपादित है। इन निन्दापरक वाक्यों का तात्पर्य निन्दा में न होकर किसी एक पर अपनी श्रद्धाभक्ति में दृढता सम्पादन करने में ही है। अर्थात जिसने जिस पक्ष को स्वीकार किया, जिसका जो कुलाचार है, जिसका जो सम्प्रदाय है उसी में उसको दृढ निष्ठा रखनी चाहिए। दूसरे पक्ष का अवलम्बन नहीं करना चाहिए। यही मर्यादा है, इसी सम्प्रदाय सांकर्य को रोकने के लिए एक की स्तुति के लिए दूसरे की निन्दा कर दी जाती है।
इसी कारण हमने कुछ समय वह वचन पुराणों के दिये जहां शिव का परत्व व विष्णुजी का अपरत्व सिद्ध है। जिससे सम्प्रदाय विशेष को ज्ञात हो जाये कि किसी एक देव या सम्प्रदाय की श्रेष्ठता नहीं होती। सभी सम्प्रदायों को अपने अपने सम्प्रदायप्रदत्त विधि विधान का पूर्ण अधिकारी है। सभी जगह अपने विधि विधान थोपना अत्यन्त मूर्खतापूर्ण है। इस मूर्खता एवं कलहप्रियता से दूर रहना चाहिए।