प्रमोद दीक्षित मलय की रिपोर्ट
19वीं सदी का मध्यकाल। देश में पुनर्जागरण की आहट सुनाई दे रही थी। छापाखाना, रेल एवं तार ताल ठोककर आगे बढ़ने को तैयार थे। समाज ईस्ट इंडिया कंपनी के अत्याचार एवं शोषण से कराह रहा था। राजे-रजवाड़े अपना राजपाट बचाने के लिए कहीं कंपनी से संवाद के मंच सजाये थे तो कहीं संघर्ष के लिए रणक्षेत्र में सैन्य सलिल। ग़रीबी मरुस्थल सा विस्तार पा रही थी। व्यापार पर कंपनी शिकंजा कसती जा रही थी। लोकजीवन अपनी गति से दैनंदिन कार्य-व्यवहार में संलग्न था।
साहित्य में ब्रजभाषा का आधिपत्य स्थापित था। ब्रजभाषा में रची काव्य रचनाएं लोक में गुंजायमान थीं, गद्य आंखें खोल रहा था पर चमक न थी। उसी काल में, काशी के एक व्यापारी के घर किलकारी गूंजी। घर का कोना-कोना सुवासित हो गया। वैश्य परिवार के आंगन में खुशियां बिखर गयीं। पंडित-पुरोहितों ने आशीष दे भविष्य कथन किया, “बालक खूब नाम करेगा, कीर्ति-यशभागी होगा। बालक के पुरुषार्थ सम्पदा से सदन कोठार भरे रहेंगे।” कौन जानता था कि यह शिशु आगे चलकर भारत की भाषा और साहित्य की अनन्य सेवा कर अपनी साहित्य संपदा से देश के कोठार भरे देगा।
विश्व में खड़ी बोली हिन्दी का अग्रदूत बन भाषा-साहित्य के उपवन में पाटल पुष्प सा सुवासित हो परिवेश को सुरभित एवं संचेतन करेगा। काशी के विद्वत समाज से भारतेंदु की उपाधि से विभूषित हो सही मायने में भाषा और साहित्य का उन्नायक उज्ज्वल चंद्र ही सिद्ध होगा। खड़ी बोली का पितामह नाम से लोक विश्रुत हो रचनाकारों को नवल राह पर बढ़ने को प्रेरित करेगा। निश्चित रूप से भारतेंदु हरिश्चंद्र हिंदी भाषा एवं साहित्य के भव्य प्रासाद के सुदृढ आधार हैं।
भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्म ज्ञान, कला, संगीत एवं साहित्य की नगरी काशी में 9 सितम्बर, 1850 को एक समृद्ध वैश्य परिवार में हुआ था। पिता गोपालचंद्र पर लक्ष्मी के साथ ही मां सरस्वती की भी कृपा थी और वह गिरधरदास नाम से ब्रजभाषा में काव्य रचना करते थे और काव्य रसिकों में सुने-सराहे जाते थे। मां गृहिणी थीं और बच्चे के लालन-पालन में सुख पाती थीं। प्रेम, मधुरता एवं वात्सल्य की धारा में अवगाहन कर बालक बड़ा होने लगा। कालचक्र अपनी गति से बढ़ रहा था।
असीम प्यार-दुलार एवं वात्सल्य रस से सिंचित कर पांच वर्ष के बालक को पिता के हाथों में सौंप मां स्वर्ग सिधार गयी। पिता की देखरेख में बालक बढ़ने लगा। पिता की कविताओं का स्वर बच्चे को प्रिय लगने लगे। फलत: वह गुनगुनाता रहता और एक दिन एक दोहा रच पिता को सुनाया तो पिता ने हृदय से लगा आशीष दिया कि तुम हमारे कुल परिवार का बड़ा नाम करोगे।
वह दोहा था- लै ब्यौढ़ा ठाढ़े भये, श्री अनिरुद्ध सुजान।
बाणासुर की सेन को, हनन लगे भगवान।।
बालक की काव्य सर्जना की प्रतिभा देख पिता हर्षित तो थे ही, अब अधिक ध्यान लगे। यही समय उसकी शिक्षा का भी था। घर पर पढ़ाने की व्यवस्था कर दी गयी। पर क्रूर काल ने फिर प्रहार किया और बालक हरिश्चंद्र को निष्ठुर दुनिया में अकेला छोड़ पिता अनन्त यात्रा पर निकल गये। बालक साहसी था, दुःख और पीड़ा को भुला शिक्षा साधनारत हुआ। आगे की पढ़ाई हेतु क्वींस कालेज में प्रवेश लिया पर मन रमा नहीं। तो वापस घर की राह ली और स्व अध्ययन से संस्कृत, फारसी, उर्दू, मराठी और बंगला भाषा सीखने में समर्थ हुए।अंग्रेजी पढ़ने के लिए राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद का शिष्यत्व ग्रहण कर अंग्रेजी भाषा में निष्णात हुए।
इसी दौरान बंगला की रचनाओं का हिंदी में अनुवाद किया। भारतेंदु हरिश्चंद्र दूरदर्शी व्यक्ति थे। गुलामी का काल था और समाज अपने गौरव को भूला हुआ था। सोये पड़े समाज को जाग्रत कर आत्म गौरव एवं अस्तित्व की पहचान कराने की दृष्टि से पत्रकारिता का पथ चुना। भारतेंदु जी ने तीन पत्रिकाएं निकालकर स्त्री शिक्षा, समाज जागरण, स्वदेशी भावना का संचार करने और किसानों मजदूरों की पीड़ा एवं दर्द को स्वर दे हालत सुधारने में मदद की।
18 वर्ष की अवस्था में ‘कविवचन सुधा’ निकाली जिसमें तत्कालीन वरिष्ठ साहित्यकारों की रचनाएं छपती थीं। 1873 में ‘हरिश्चंद्र चंद्रिका’ निकाली तो 1874 को स्त्री शिक्षा को बढ़ावा देने और महिलाओं के मुद्दों पर संवाद के लिए ‘बालबोधिनी’ का प्रकाशन शुरू किया। तीनों पत्रों के द्वारा राष्ट्रीय गौरव, स्वतंत्रता एवं स्वदेशी, आत्म सम्मान आदि भावों के साथ ही साक्षरता बढ़ाने की दिशा में भी सफल हुए।
भारतेंदु हरिश्चंद्र के कार्यों एवं प्रतिभा के कारण उनकी ख्याति इत्र की भांति फैलती गयी। अंग्रेज सरकार ने 20 वर्ष की आयु में ही उन्हें मानद मजिस्ट्रेट नियुक्त किया। तो 30 वर्ष की आयु में काशी के विद्वानों से भारतेंदु की सम्मानोपाधि से अलंकृत किया। भारतेंदु का बड़ा काम था भाषा का परिष्कार और साहित्य लेखन को ब्रजभाषा से निकाल खड़ी बोली हिन्दी के आंगन में स्थापित करना। पत्रकारिता के साथ ही आपने नाटक, निबंध, काव्य और अनुवाद के क्षेत्र में नये मानक रचे। वह लेखक-कवि के साथ ही रंगकर्मी, पत्रकार और कुशल वक्ता भी थे। तत्कालीन मेलों में उनको सुनने के लिए भीड़ घंटों प्रतीक्षा करती। भारतेंदु की रचनाओं में प्रकृति, देशभक्ति, राष्ट्र भाषा गौरव, स्त्री शिक्षा, स्वदेशी, अंग्रेजी दासता एवं शोषण का विरोध एवं समाज सुधार के स्वर सुनाई देते हैं। वह हिंदी भाषा के प्रबल समर्थक थे और देश-समाज की उन्नति का आधार मातृभाषा को ही मानते थे।
उनका यह मातृभाषा-प्रेम परक प्रसिद्ध दोहा उल्लेखनीय है-
निजभाषा उन्नति लहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटे न हिय को शूल।।
1882 में भारत आये हंटर शिक्षा आयोग के सम्मुख न्यायालयों में हिंदी भाषा के प्रयोग करने सम्बंधी अपना दृढ पक्ष रखा था। वह न केवल स्वदेशी के पक्षधर थे बल्कि स्वदेशी भाव विचार के प्रसार में भी अग्रणी थे। विदेशी कपड़ों के बहिष्कार के लिए कविवचन सुधा के 23 मार्च, 1874 के अंक में स्वदेशी प्रतिज्ञा पत्र भी छापा था। केवल 35 वर्ष के अल्प जीवन काल में ही भारतेंदु हरिश्चंद्र ने साहित्य की विविध विधाओं में प्रचुर लेखन किया। नियति ने यदि अधिक समय दिया होता तो निश्चित रूप से हिंदी
साहित्य भंडार कहीं अधिक समृद्ध और समुन्नत होता। हिंदी साहित्याकाश के रजत चंद्र भारतेंदु को 6 जनवरी, 1885 को काल ने हमसे छीन लिया। उनकी स्मृति में भारतेंदु पुरस्कार, चौराहों पर मूर्ति स्थापना, संस्था निर्माण के साथ ही केंद्र सरकार ने 1976 में 25 नये पैसे का एक डाक टिकट जारी किया था। उनकी रचनाओं की सुगंध से परिवेश सुवासित रहेगा और रचनाकार प्रेरणा प्रकाश प्राप्त करते रहेंगे।
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लेखक शिक्षक एवं वरिष्ठ साहित्यकार तथा शैक्षिक संवाद मंच के संस्थापक हैं। बांदा, उ.प्र., मोबा 9452085234